Friday, August 29, 2008

आल्ह- रुदल

आल्ह- रुदल



प्रसिद्ध आल्ह- रुदल तेईस मैदान और बावन लड़ाइयों की सप्रसंग व्याख्या है, जिसको सुनकर ही लोग वीरता की भावना से ओत- प्रोत हो जाते हैं।

मध्यकालीन राजपूत समाज में आपसी वैर-भाव या विवाह आदि को लेकर लड़ाईयाँ होती रहती थी। कन्या के विवाह योग्य होते ही, पिता कई देशों में बारी, नाई, पुरोहित आदि को न्योता देते थे। वर का चयन प्रायः तलवार की नोंक पर होता था।

शादी के इच्छुक व्यक्ति को कन्या के पिता की कुछ शतç पूरी करनी होती थी। इन शताç को पूरा होने के लिए लड़ाई अनिवार्य- सा हो गया था।

आल्ह खंड में प्रेम और युद्ध के प्रसंग घटना- क्रम में सुनाये जाते हैं। पूरे काव्य में नैनागढ़ की लड़ाई सबसे रोचक व लोकप्रिय मानी जाती है।

अन्य कई लोक- गाथाओं की तरह आल्ह- रुदल भी समय के साथ अपने मूल रुप में नहीं रह गया है। इसने अपने आँचल में नौं सौ वर्ष समेटे हैं। विस्तार की दृष्टि से यह राजस्थान के सुदूर पूर्व से लेकर आसाम के गाँवों तक गाया जाता है। इसे गानेवाले "अल्हैत' कहलाते हैं। साहित्यिक दृष्टि से यह "आल्हा' छंद में गाया जाता है। हमीरपुर (बुंदेलखंड) में यह गाथा "सैरा' या "आल्हा' कहलाती है। इसके अंश "पँवाड़ा', "समय' या "मार' कहे जाते हैं।

विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न- भिन्न भाषाओं में गायक इसे गाते हैं तथा अपनी तरफ से जोड़- तोड़ के लिए स्वतंत्र रहे हैं। इस प्रकार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आते- आते इसमें बदलाव की संभावना बनी रही।


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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र

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